Saturday, March 7, 2009

महिला दिवस पर विशेष -


हर आँगन से उठती सिसकी
सदियों से खामोश है -
आँगन से आँगन तक के सफर में ।
गुजरती रहीं सदियाँ
तमाम उम्र के बेगार का अंत
सचमुच बहुत भयावह है ।
बचपन गुज़रा ,जवानी गुज़री
बुढापे तक अस्तित्व पर पर्दा ही पर्दा
देवी सी पूजी गई हो
या दासी सी तिरस्कृत रही हो ,
मनुष्य की पहचान से हमेशा महरूम रही ।
पत्थर -युग से कंप्यूटर तक का
सफर सफर तय कर चुका संसार
पर आधी दुनिया अभी तक
आँगन से आँगन तक के सफर में ही दफ़न है ।

4 comments:

शोभा said...

देवी सी पूजी गई हो
या दासी सी तिरस्कृत रही हो ,
मनुष्य की पहचान से हमेशा महरूम रही ।
पत्थर -युग से कंप्यूटर तक का
सफर सफर तय कर चुका संसार
बहुत ही सुन्दर लिखा है। बधाई।

संगीता पुरी said...

बिल्‍कुल सही कहा ... सुंदर प्रस्‍तुतीकरण।

हें प्रभु यह तेरापंथ said...

GOOD POST:)..KEEP WRITING SUCH BEAUTIFUL POSTS..VISIT MY BLOG TOO..AND COMMENT PLZ..IT'S ON THE SAME TOPIC..:)

Unknown said...

bhai meri taraf se tujhe dheron badhai...itni sundar kavita likhne ke liye..