परिंदा हूँ ये फितरत है, मेरा उड़ना नही जाता ,
जमीं पर आ तो जाता हूँ मगर ठहरा नही जाता।
बियाबानो के पौधों की तरह है,ज़िन्दगी अपनी ,
हम अपने दम पे बढते हैं हमें पाला नही जाता ।
वही आटे की रोटी है ,वही आटे की चिड़िया है ,
खिलौना हमको रोने पर कभी लाया नही जाता ।
अटक जाते है , जब सूखे निवाले मेरे बच्चों के ,
मैं मुहं फेर लेता हूँ , उधर देखा नही जाता ।
अभी है पाँव कुछ छोटे नही आते है पैडल तक ,
अभी है पाँव कुछ छोटे नही आते है पैडल तक ,
वो रिक्शा खींचता तो है मगर खींचा नही जाता ।
1 comment:
Hello. Today, my English professor recited first few lines of this poem in our class saying that this was his own work which has won 1st prize in some competition. Can you please verify whether it's your original work.
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