Tuesday, March 17, 2009

मोदी का नया वर्ज़न वरुण गाधी

"अगर किसी ग़लत तत्त्व के आदमी ने , किसी हिंदू पर हाथ उठाया या हिन्दुओं ...,ये समझे की ये कमजोर है ,उनके पीछे कोई नही है ...मै गीता की कसम खा कर कहता हूँ कि मै उस हाथ को काट डालूँगा "
ये शब्द किसी और के नही बल्कि स्व .संजय गाधी एवं मेनका के सुपुत्र और भाजपा के युवा नेता वरुण गाधी के है । यह देश के लिए दुर्भाग्य है कि ऐसे सांप्रदायिक तत्वों को हमें झेलना पड़ता है । इन्हे गाधी नेहरू परिवार का वारिस कहा जाए या ९० के दौर में राम मन्दिर के नाम पर सांप्रदायिक माहौल बनाने वाले अडवाणी कि परम्परा का वाहक । भाजपा को जब कोई मुद्दा नही सूझता है तो चुनाव के पहले धर्मं आधारित राजनीति शुरू कर देती है ।
आडवानी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती,कल्याण सिंह सहित वर्तमान में नरेन्द्र मोदी और विनय कटियार जैसे लोग सांप्रदायिक सदभाव बिगाड कर सत्ता का सुख भोगते रहते है । वरुण गाधी के इतिहास पर नज़र डाली जाए तो पता चलता है कि इन्होने लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स से कानून और अर्थशास्त्र कि पढाई कि इनकी रास्ट्रीय सुरक्षा और कविता पर पुस्तक भी आई है । ऐसे में यह ताज्जुब का विषय है कि इतना पढ़ा हुआ व्यक्ति भी सांप्रदायिक है ! इससे एक बात स्पस्ट होती है की देश के नेता यह जान चुके है की चुनाव में जीतने का सबसे अचूक मंत्र यही है ।
वरुण गाधी ने पीलीभीत में अभी तक तीन 'हिंदू सम्मलेन ' को संबोधित कर चुके है । २२ फरवरी को लालौरी खेरा ,६ मार्च को दालचंद और ८ मार्च को बार खेरा । जिसमे बारी -बारी से वरुण ने 'जय श्री राम ' और धर्म विशेष का सहारा लेकर अपनी चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिश की । भाजपा का मौन इस बात की ओर इशारा करता है कि उसकी तरफ़ से मूक सहमति है ।इतना ही नही गाधी परिवार का माहौल बिगाड़ने का पुराना इतिहास रहा है । लोकतंत्र का काला अद्याय इमरजेंसी में वरुण के पिता स्व.संजय गाधी ने किस तरह सत्ता का दुरुपयोग किया था यह किसी से छुपा नही है ,इन्द्रा गाधी की हत्या के बाद राहुल गाधी का कथन "जब बड़ा पेड़ गिरता है ,धरती हिलती है " के द्वारा सिखों पर हुए कत्लेआम को सही ठहराना कहा तक उचित था ! ९० के दौर में एक बार फिर बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाकर राजीव गाधी ने बाबरी विध्वंस का मार्ग प्रसस्त किया था । और अब वरुण का यह विचार उसी के आगे का रास्ता है !
अभी तक आडवानी,सोनिया कि प्रतिक्रिया न आना लोकतंत्र का मखौल उड़ा रहा है। जनता को यह बात पूरी तरह समझ लेनी चाहिए कि राजनीति के इन सौदागरों से बचना होगा और चुनाव में अपनी कड़ी प्रतिक्रिया से अमन चैन बिगाड़ने वालों के मुह पर जोरदार तमाचा जड़ना होगा ।
नरेन्द्र मोदी के नए रूप वरुण गाधी का जमकर विरोध करे तभी यहाँ कि आबोहवा में ताजगी आएगी । इकबाल की ये पंक्तिया आज भी उतनी ही प्रासंगिक है ...
सारे जहा से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।
हम बुलबुले है इसके ये गुल्सिता हमारा ।

मजहब नही सिखाता आपस में बैर रखना ,
हिन्दी है हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा।

Sunday, March 15, 2009

मशालें लेकर चलना ...



मशालें लेकर चलना,कि जब तक रात बाकी है

संभल कर हर कदम रखना,कि जबतक रात बाकी है

मिले मंसूर को शूली ,जहर सुकरात के हिस्से

रहेगा जुर्म सच कहना,कि जब तक रात बाकी है

पसीने कि तो तुम छोड़ो, लहू मजदूर का यारो

सस्ता पानी सा बहेगा, जब तक रात बाकी है

तेरे मस्तक पे होगा हर पल विद्रोह का निशां

नही ये जोश कम होगा,कि जब तक रात बाकी है

अंधेरों की अदालत में,हैं क्या फरियाद का फायदा

तू कर संग्राम ऐ साथी, की जब तक रात बाकी है ।

मशालें लेकर चलना ...

(यह आज़ादी बचाओ आन्दोलन का गीतायन है । बताते चले की यह पेप्सी -कोका कोला के ख़िलाफ़ राष्ट्र व्यापी आन्दोलन है । पिछले ४ वर्षो से मै भी इलाहाबाद में प्रो.बनवारी लाल शर्मा के नेतृत्व में इससे जुदा हुआ हूँ। )

Saturday, March 14, 2009

इलाहाबाद विश्वविद्यालय की कुछ छविया

सीनेट हाल ...

कला संकाय ...






विज्ञानं संकाय ...

विजयनगरम हाल और गणित विभाग

सर सुंदर लाल छात्रावास

सीनेट हाल का एक द्वार
इलाहबाद विश्वविद्यालय से मैंने परास्नातक किया। वहां सर गंगानाथ झा छात्रावास में रहते हुए ज़िन्दगी के कई पहलू देखे। उन्ही यादों को ताज़ा करते हुए ये फोटो प्रकाशित कर रहा हूँ।
नचिकेता शर्मा जो स्वतंत्र पत्रकार है , उनके कैमरे से इलाहाबाद विश्वविद्यालय की कुछ तस्वीरें । बताते चले की शर्मा जी दिल्ली में पत्रकारिता के अवसर हेतु संघर्ष कर रहे है ।




पत्रकार के कैमरे से ...







मेरे मित्र नचिकेता शर्मा द्वारा खीची गई फोटो। शर्मा जी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पत्रकारिता करने के बाद वाराणसी में अमर उजाला में ६ महीने काम किया। अभी अवसर की तलाश में दिल्ली है ।

तीसरा मोर्चा :मिथक और यथार्थ


भारत में चुनावी महापर्व अर्थात आम चुनाव आने से पहले गठजोड़ का खेल शुरू हो जाता है। विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियों को अपने पाले में लाने की जुगत में कांग्रेस और भाजपा व्यस्त हो जाते है। इसी बीच कभी-कभी तीसरे मोर्चे की बात भी सुनायी दे जाती है।1977 में भारत के राजनीतिक इतिहास में पहली बार कांग्रेस विरोध के दम पर सत्ता में आयी जनता पार्टी की सरकार एक ऐतिहासिक घटना थी। इस सरकार को अमली जामा पॅहुचाने वाले लोकनायक जयप्रकाश ने कहा था कि जनता पार्टी का मतलब भारत की आम जनता से है। कांगेस के विद्रोही नेता मोरार जी देसाई प्रधानमंत्री बने। लेकिन राजनीतिक महत्वकांक्षा की सिर फुटट्वल से जल्द ही यह सरकार पदच्युत हो गयी।इसके 12 साल बाद 1989 में कांग्रेस के ही असंतुस्ट नेता वी।पी।सिंह ने सत्ता परिर्वतन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। बोफोर्स मामले मे राजीव गांधी से दो-दो हाथ करने से भी नही चूके। राजा मांडा के नाम से विख्यात वियवनाथ प्रताप सिंह हालाकि बहुत कम समय के लिये प्रधानमंत्री रहे लेकिन मंडल कमीसन लागू कर इतिहास पुरूष बन गये। इसके बाद बलिया के सांसद युवा तुर्क,खाटी समाजवादी नेता चंद्रशेखर मात्र चार दर्जन सांसदो के बल पर लाल किले के प्राचीर से तिरंगा झंडा फहराने में सफल रहे। लेकिन तत्कालीन अवसरवाद के तहत प्रधानमंत्री बने चंद्रशेखर भी स्थिर सरकार देने में विफल रहें । गए घटना के मात्र सात साल बाद 1996 में एक बार फिर कंाग्रेस की बैसाखी पर वी.पी.सिंह के सुझाव पर कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहे एच.डी.देवगौड़ा तीसरे मोर्चे से प्रधानमंत्री बने।असंतुस्टों की मार झेलते हुये शीग्र ही उन्हे भी पद छोड़ना पड़ा। जिसके फलस्वरुप बेहद कम चर्चा में रहने वाले इंद्र कुमार गुजराल सौभाग्यवस प्रधानमंत्री बने।लेकिन उनका कंधा भी सहयोगियों के बोझ न ढ़ो सका और दो साल के अंदर ही चुनाव हो गए ।
ek बार फिर तीसरे मोर्चे की अटकले चर्चा में है।अभी एक साल पहले ही मुलायम सिंह के अगुआई में तीसरे मोर्चे का गठन हुआ था।जिसमें चंद्र बाबू नायडू,जयललिता,ओम प्रकाश चौटाला ,असम गण परिसद के गोस्वामी सहित झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबू लाल मरांडी थे।लखनऊ में आयोजित रैली में सभी ने एकजुट होकर नया विकल्प देने का संकल्प किया था। लेकिन जल्द ही यह गठबंधन छिन्न-भिन्न हो गया। कुछ को छोड़ कर लगभग यही दल एक बार फिर वाम दल के प्रमुख प्रकाश करात के नेतत्व में नया गुल खिलाने का प्रयास कर रहे है। लेकिन यहा समस्यायें भी कई तरह की है। सबसे विकट समस्या प्रधानमंत्री पद को लेकर है। देवगौड़ा की अपनी हसरतें है जबकि उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती तो अभी से ही प्रधानमंत्री पद के हसीन सपनें देख रही है।यदि तीसरे मोर्चे के सदस्यों पर नज़र डाले तो इनका अभूतपूर्व इतिहास सामने आता है। पहला नाम वाम दलों का है जिनकी कांग्रेस और भाजपा से दूर रहने की अपनी मजबूरी है।कांग्रेस नीत गठबंधन मे वाम दल बार-बार घुड़की देते रहे है । संप्रग सरकार में वाम दलो ने किस तरह गठबंधन धर्म निभाया यह किसी से छुपा नही है। बसपा का तो गठबंधन तोड़ने का स्वर्णिम इतिहास रहा है। भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री बनी मायावती ने किस तरह दो बार भाजपा को धोखा दिया इसकी याद आज भी लोगो के जे़हन में ताजा है।इतना ही नही समाजवादी पार्टी और कांग्रेस से भी इसका गठबंधन टूट चुका है। मोदी का प्रचार कर मायावती स्वंय को किस तरह धर्मनिरपेक्ष बताती है,यह समझ से परे है! रही बात तेलगु देशम पार्टी की ,तो पिछले चुनाव मे पाँच सीट और विधानसभा में बेहद निराशाजनक प्रदर्शन के बाद वह किस स्तर पर है यह सबको पता है। आंध्र प्रदेश की राजनीति में चिरंजीवी के आने से सत्ता समीकरण बिगड़ गये है।कभी तीसरे मोर्चे के संयोजक रहे चंद्रबाबू नायडू ,ने एनडीए के शासन में खूब मलाई काटी और अब अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिये एक बार फिर तीसरे मोर्चे की शरण में पहुच गये है ।

इतना तो तय है कि तीसरे मोर्चे के नाम पर गठित सभी दल चुनाव के बाद जमकर सौदेबाजी करने वाले है। क्योकि जब तक तीसरे मोर्चे की एक व्यापक और दूरदर्शी सोच के साथ लोगो की बेहतरी के लिये कुछ अलग योजना नही होगी तब तक यह भटकाव की ओर ही अग्रसर रहेगा। सबसे पहले इस मोर्चे को अपनी विस्वसनीयता कायम करनी होगी जिससे विषम परिस्थितियों मे भी यह बना रहे। इसे जन आंदोलनो की नब्ज थाम कर अपना प्रसार करना होगा, तब कहीं रास्ट्रीय स्तर पर यह विकल्प के रुप में उभर सकेगा।

Friday, March 13, 2009

नोट बाटने के मायने

आज दोपहर न्यूज़ चैनल देख रहा था । अचानक आई बी एन सेवेन पर एक ब्रेकिंग न्यूज़ आयी। मुलायम सिंह यादव के कार्यकर्तायों ने इटावा में होली मिलन कार्यक्रम के दौरान १००-१०० के नोट बाटें। इस के बाद शुरू हो गया मीडिया के पागलपन का दौर । भला स्टार न्यूज़ कैसे पीछे रहता उसने भी मुबई की घटना को दिखाना शुरू कर दिया । मुबई में कांग्रेस के सांसद सिने अभिनेता गोविंदा अपने घर आए हिज़डों और मलिन बस्तियों के समूह को रुपये दे रहें । जाहिर है की मीडिया का यह उत्तरदायित्व है की व्यवस्था की खामियों को उजागर करें , लेकिन इस बात से इनकार नही किया जा सकता की मीडिया को हर पहलू दिखाना चाहिए । मीडिया जज नही है , जो हर मामले में अपना निर्णय दे दे । जो लोग होली की परम्परा से वाकिफ होंगे वे इस बात को जानते होंगे की , होली पर त्योहारी देने का चलन होता है । गावों और छोटे शहरों में आज भी लोग एक दूसरे पर आश्रित रहते है । होली के त्यौहार पर कपड़ा धोने वाले ,बाल काटने वाले , बर्तन माजने वालो को मिठाईया और कुछ रूपये देने की पुरानी परम्परा है । यह सभी जानते है कि आज भी देश कि अधिकांश जनता के लिए होली के कोई मायने नही है । गरीबी से जूझ रही ७० प्रतिशत आबादी कि ज़िन्दगी का हर पहलू बदरंग है । सामाजिक असमानता चरम पर है । लोगो में नफरत ,हिंसा बढ रही है । ऐसे में यदि होली के बहाने कुछ लोग मिठाईया खाने या भोजन के लिए कुछ रूपये पा जा रहे है , तो यह किसी भी प्रकार अनुचित नही है । मीडिया को इस घटना के मद्देनज़र मुफलिसी में जी रहे लोगों के जीवनयापन को दिखाना चाहिए । पत्रकारिता का काम सभी को मंच देना होना चाहिए । याद रखिये यदि एक बार वंचित वर्ग के सब्र का बाध टूटा तो लोकतंत्र कि धज्जिया उड़ जाएँगी । फिर ना रहेगा सिविल सोसाइटी और न रहेगी पत्रकारिता। बताने से पहलेचेतने में ही सब कि भलाई है । हर पहलूँ के दोनों पक्ष दिखाकर उसपर निर्णय करने का अधिकार जनता के पास रहने दीजिये । क्योकि लोकतंत्र में जनता ही सबकुछ है ।

Monday, March 9, 2009

महिला संघर्ष की प्रतीक को नमन ...



पिछले दिनों महिला दिवस पर महिला सशक्तिकरण पर जम कर बातें हुयी । विभिन्न माध्यमों के के द्वारा महिलाओं की एक गुलाबी छवि प्रस्तुत की गई जिसमे यह बताया गया की महिलाएं तेजी से हर क्षेत्र में उभर रही है । समाचारपत्रों और इलेक्ट्रॉनिक चैनलों ने कई महिलाओं के बारे में लिखा और दिखाया । महामहिम रास्ट्रपति ,कांग्रेस पार्टी की मुखिया सोनिया गाँधी ,सायना नेहवाल ,सानिया मिर्जा और इन्द्रा नूयी जैसी अनेको महिलाएं छायी रही । मुझे इससे कोई आपत्ति नही लेकिन इसी दिन एक महत्वपूर्ण घटना हुयी जिस पर मीडिया ने कोई सुध नही ली जिसका मुझे बेहद कष्ट है ।

पिछले ८ वर्षो से आमरण अनशन कर रही शर्मीला इरोम को न्यायालय ने प्रतीकात्मक रूप से बरी कर दिया । लेकिन कुछ समय बाद उन्हें फिर पुलिस कस्टडी में रख दिया गया । पूर्वोत्तर के बारे में दोहरा मापदंड अपनाने के कारन इसकी कोई चर्चा ही नही हुयी । यह बहुत दुर्भाग्य की बात है विश्व में अपने तरह का यह अनूठा संघर्ष है। फिर भी अधिकांश देशवासी इरोम के बारे में जानते ही नही । गाँधी के देश में जब उनके सामानों को भारत लाने की बात पर एक बहस छिडी है , ऐसी में उनके सिधान्तोको को आज भी जीवित रखने वली महिला पूरी तरह उपेक्षित है ।

मणिपुर की ३६ वर्षीया कवियत्री ,चित्रकार,और गाँधी वादी इरोम शर्मीला चानू ४ नवम्बर २००० से आमरण अनशन पर है । उनकी नाक में नली डालकर जबरजस्ती तरल पदार्थ दिया जा रहा है , जिससे वो जीवित रह सके। उनकी स्पस्ट मांग है, कि सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून १९५८ रद्द किया जाए ताकि पूर्वोत्तर में इस कानून के बर्बरता पूर्ण इस्तेमाल को रोका जा सके । इम्फाल से करीब १५ किलो मीटर दूर २ नवम्बर २००० को सुरक्षा बलों ने एक बस स्टाप पर खड़े निर्दोष लोगों पर गोलाबारी की जिसमे दस लोग मारे गए । इसी घटना के विरोध में इरोम ने भूख हड़ताल कर दिया। २१ नवम्बर को उसे 'आत्महत्या का प्रयास ' करने के आरोप में गिरिफ्तार कर दिया गया। उसे इम्फाल के ही जवाहर लाल नेहरू अस्पताल में भरती कराकर प्रशासन उसे जबरजस्ती नाक के रास्ते खिलाने लगा । इस घटना के ६ साल तक वह वही रही। न्यायिक हिरासत में रहते हुए उसने अपना अनशन तोड़ने या जमानत करने से इनकार कर दिया । जैसा की नियम है एक साल पूरा होने पर अदालत ने उसे रिहा कर दिया , क्योकि आत्महत्या के प्रयास के मामले में उसे अदिकतम एक साल की सज़ा दी जा सकती है । उसके बिना पानी के अनशन जारी रखने के कारण बार-बार रिहा होने के दो-तीन दिन के भीतर गिरिफ्तार कर लिया जाता था ।

२००६ में ३ अक्टूबर में अदालत ने उसे फिर बरी कर दिया ,जिसके अगले दिन शर्मीला ने सुरक्षा बलों को चकमा देते हुए मणिपुर से बहार निकल आई। इस मुद्दे पर राष्ट्र का ध्यान आकर्षित करने के लिए दिल्ली में जंतर-मंतर पर अनशन जारी रखा। तीन दिन के बाद आधी रात को पुलिस ने पकड़कर एम्स में भरती करा दिया। और यह क्रम आज भी जारी है ...........सत्य और न्याय के लिए संघर्स करने विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में यही अंजाम होगा यह विचार का प्रश्न है ? इरोम शर्मीला अपने अनशन से लोकतान्त्रिक व्यवस्था को मजबूत कर रही है ,आम जन मानस की इस प्रकरण पर चुप्पी खतरनाक भविष्य के संकेत दे रही है !

Saturday, March 7, 2009

महिला दिवस पर विशेष -


हर आँगन से उठती सिसकी
सदियों से खामोश है -
आँगन से आँगन तक के सफर में ।
गुजरती रहीं सदियाँ
तमाम उम्र के बेगार का अंत
सचमुच बहुत भयावह है ।
बचपन गुज़रा ,जवानी गुज़री
बुढापे तक अस्तित्व पर पर्दा ही पर्दा
देवी सी पूजी गई हो
या दासी सी तिरस्कृत रही हो ,
मनुष्य की पहचान से हमेशा महरूम रही ।
पत्थर -युग से कंप्यूटर तक का
सफर सफर तय कर चुका संसार
पर आधी दुनिया अभी तक
आँगन से आँगन तक के सफर में ही दफ़न है ।

Friday, March 6, 2009

बापू कि स्मृतियों के बहाने कुछ द्वंद

माडिसन एवेनुए में ५९५ नम्बर में अमेरिका के जेम्स ओटिस ने बापू के सामानों की नीलामी की...

भारत के विजय माल्या ने इसे भारत की प्रतिष्ठा से जोड़ते हुए बापू की सभी उपलब्ध वस्तुओं को ११ करोड़ में खरीदा । इसके पहले भी वो टीपू सुलतान की तलवार भारत ला चुके है ।




बापू के सामानों के नीचे उस अख़बार की प्रति जिसमें गाँधी जी की हत्या की ख़बर प्रकाशित हुई थी.



बापू की ये जेब घड़ी ज़ेनिथ कंपनी की है और संभवत: 1910 में बनी थी.



गांधी के चश्मे की भी नीलामी हुई. महात्मा गांधी का अपने चश्मों के बारे में कहना था," इन चश्मों से मैं आज़ाद भारत की तस्वीर देखता हूँ."


ये दावा किया गया है कि हत्या से पहले बापू ने आख़िरी बार इसी प्लेट-कटोरी में खाना खाया था.

लेकिन प्रश्न यह है की बापू ने जिन दो आधारभूत सिद्धांतों की बात की थी उन पर कितना अमल हो रहा है । महात्मा गाँधी ने कहा था -
१) साधनों की सुचिता और
२)आचरण की पवित्रता
यही दो अमोध हथियार है जिन के बल पर रामराज्य की स्थापना हो सकती है । आज जब समाज में भ्रष्टाचार , हिंसा सहित नाना प्रकार की बुराईयाँ घर कर गई है ऐसे में हमें विचार करना होगा की क्या ? बापू से जुड़े सामानों की हमें आधिक चिंता है ,या उनके सिद्दांतो की ।
आज वैश्विक स्तर पर दो तरह की समस्याएं है -आतंकवाद और आर्थिक मंदी । दोनों का समाधान बापू के सिद्दांतो में है । आतंकवाद का कारण जिसके पास शक्ति है वो उसका दुरुपयोग कर रहा है । शक्तिशाली अमेरिका कमजोर देश जैसे इराक ,अफगानिस्तान को बरबाद कर रहा है । इसकी प्रतिक्रियात्मक हिंषा ही आतंकवाद है । वही दूसरी ओर आर्थिक मंदी का कारण आज की अर्थव्यवस्था का सट्टेबाजी आधारित होना है । भारत जैसे देश में जहाँ ६० प्रतिशत लोग कृषि पर निर्भर है वहां अर्थव्यवस्था कृषि आधारित होनी चाहिए , जिससे रोजगार के आधिक अवसर उत्पन्न हो । बापू ने कहा था कि मशीनीकरण तब तक उचित है जब तक उसे आदमी चलाये ,लेकिन जब यह आदमी को चलाने लगे तो समाज के लिए घातक हो जाएगा ।
आईये बापू के धरोहरों को लाने के साथ ही सत्य ,आहिंसा और सत्याग्रह को अंगीकार करने का एक सार्थक प्रयास कर समाज कि बेहतरी में अपना योगदान सुनिश्चित करें ।
(सभी फोटो बी.बी.सी.से साभार )

Wednesday, March 4, 2009

गुजरात के सिधी गोमा जनजाति

सूरजकुंड शिल्प मेला २००९ में गुजरात के सिधी गोमा जनजाति का अदभुत प्रदर्शन ।

















असीम सहिबाबादी की रचना ...एक रिक्सावाले की व्यथा


परिंदा हूँ ये फितरत है, मेरा उड़ना नही जाता ,
जमीं पर आ तो जाता हूँ मगर ठहरा नही जाता।
बियाबानो के पौधों की तरह है,ज़िन्दगी अपनी ,
हम अपने दम पे बढते हैं हमें पाला नही जाता ।
वही आटे की रोटी है ,वही आटे की चिड़िया है ,
खिलौना हमको रोने पर कभी लाया नही जाता ।
अटक जाते है , जब सूखे निवाले मेरे बच्चों के ,
मैं मुहं फेर लेता हूँ , उधर देखा नही जाता ।
अभी है पाँव कुछ छोटे नही आते है पैडल तक ,
वो रिक्शा खींचता तो है मगर खींचा नही जाता ।

Tuesday, March 3, 2009

उपचुनाव का झटका -मायावती हुयी "मुलायम"



उत्तर प्रदेश के भदोही विधानसभा उपचुनाव में बसपा की हार ने कई सवाल खड़ा किए है । पिछले दिनों समाजवादी पार्टी के रास्ट्रीय नेता और राज्य सभा सांसद के साथ मै दो दिन के चुनावी दौरे पर गया था। मैंने वहा सुरियावा ब्लाक के लगभग २५ गावों का दौरा किया । जिसमे कई बाते खुल कर सामने आई । इस उपचुनाव में दो लोगो की चर्चा सबसे आधिक थी - पड़ोस के सपा विधायक विजय मिश्रा जिनकी पत्नी भदोही की जिला पंचायत अद्यक्ष भी है । इनके बारे में कई तरह की चर्चाएँ थी , ये बाहुबली है और इनकी जिले में तूती बोलती है ऐसा लोगों का कहना था । विजय मिश्रा पर कई आपराधिक मुक़दमे लगे है । कुछ लोगो का कहना था कि बनारस के व्यापारी रुंगटा अपहरण में प्रयोग की गई गाड़ी इन्ही की थी । ९५ के लगभग भदोही में हुए शुक्ला वकील हत्याकांड में लिप्त राजपूत बाहुबली को जेल भिजवाने और उसपर कई मुक़दमे दायर करवाने के कारन विजय मिश्रा ब्रह्मण स्वाभिमान के प्रतीक बन गए । इस बार के उपचुनाव में सपा प्रत्याशी मधुबाला पासी को टिकट दिलवाने में विजय मिश्रा का ही योगदान था ।

वही दूसरी ओर बसपा का मोर्चा पड़ोस के विधायक और प्रदेश सरकार में मंत्री रंगनाथ मिश्रा ने संभाला था । रंगनाथ मिश्रा पहले बीजेपी के कद्दावर नेता थे लेकिन बीजेपी के पतन के कारण उन्होंने बसपा को नया घर बनाया। रंगनाथ मिश्रा के बारे में लोगो ने बताया की पहले बहुत सहयोगात्मक थे , लोगो के सुख दुःख में सामिल होते थे , कार्यकर्ताओं सहित जनता के लिए उत्तरदायी थे । लेकिन मायावती सरकार में हर महीने रूपया देने के कारण वसूली में सलिप्त होगये है । जिससे क्षेत्र में नकारात्मक प्रभाव पड़ा है । कोटेदारों , ठेकेदारों , प्रधान आदि लोगों पर उपचुनाव में बसपा को जिताने के लिए दबाव बनाने के कारण रही सही प्रतिष्ठा भी खो दी । मंत्री बनने के बाद पहली बार भदोही के दौरे पर रंगनाथ मिश्रा ने १६ घंटे बिजली देने की बात कही थी , इसमे वो पूरी तरह विफल रहे । जनता में रोष का एक कारण ये भी था । यहाँ के लोगो ने बताया की मिर्जापुर से पत्थरों को काट कर लखनऊ में पार्क और मूर्तियाँ बनवाई जा रही है , जबकि कालीन उद्योग के पतन से बेहाल लोगो की सरकार कोई खोज ख़बर नही ले रही है । बसपा के स्थानीय सांसद भी क्षेत्र को लेकर बेहद उदासीन रवैया अपना रहे है ।

नसीमुदीन सिद्दीकी चुनाव के १० दिन पहले ही बनारस सिर्किट हाउस में डेरा जमाये थे । मुस्लिम बाहुल्य भदोही में लगातार दौरा कर रहे थे लेकिन बीएसपी को अपेक्षित परिणाम दिलाने में विफल रहे । मायावती के भदोही चुनावी जनसभा में मंच सहित सभी जगहों पर बसपा के घोषित प्रत्याशी सूर्य मणि ही छायें रहे । लोगो का कहना था की यह विधान सभा के प्रत्याशी का चुनाव है या लोकसभा के । सूर्यमणि क्षेत्र के ही नही वरन अन्तर रास्ट्रीय स्तर के कालीन व्यापारी है । अरबपति व्यापारी को टिकट मिलने से बसपा के ही नही वरन आम लोग भी नाराज है । उनका कहना है की क्या बसपा में नेताओं का आकाल पड़ गया है ? अथवा जिसके पास रूपया नही है वो बसपा का टिकेट नही पा सकता? जिले से सटे दो अन्य ब्रह्मण नेताओ काबीना मंत्री राकेशधर त्रिपाठी और नकुल दुबे को मायावती के बार बार अपमानित करने की उड़ती ख़बर से ब्रह्मण मतदाता नाराज़ था । जिले के कुछ प्रमुख ब्रह्मण नेता जो इस समय बसपा में है , उनका कहना था की दरी पर दलितों के साथ बैठना और मायावती का पैर छूना ब्राह्मणों का अपमान है , सतीश चंद्र मिश्रा के बारे में पूछने पर जाति विशेष के लोगो का आक्रोश खुल कर सामने आ गया, लोगो ने बताया कि उनके परिवार और रिश्तेदार के २५ लोग लाल बत्ती का लुफ्त उठा रहे है ।

चुनाव प्रचार के दौरान सपा के प्रदेश अध्यक्ष और मुलायम सिंह के छोटे भाई शिवपाल यादव और विजय मिश्रा कि तलाशी लेना और सभा न करने से जनता कि सहानभूति भी सपा के पाले में गई । कुल मिलकर आपसी समस्यायों से जूझ रही सपा के लिए यह उपचुनाव वरदान साबित हुआ । मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र में जीत मुस्लिम मतों का विश्वास सपा में होने कि पुष्टि करता है । सपा की विजय में पार्टी की रणनीति का बड़ा योगदान रहा । मुस्लिम जिला अद्यक्ष , ब्रह्मण रणनीतिकार विजय मिश्रा सहित पार्टी के सभी रास्ट्रीय नेताओ के दौरे से सपा ने विजय श्री हासिल की । बसपा के लिए यह चुनाव खतरे की घंटी का काम कर गया । बलिया के संसदीय उपचुनाव में हार के बाद यह बसपा की दूसरी हार है । दलितों की उपेक्षा , पार्को और प्रतिमाओं पर थोक के भावः धन खर्चा करने की प्रवित्ति , बाहुबलियों को टिकट वितरण कर पार्टी कार्यकर्ताओं को नज़र अंदाज़ करने जैसे कई कारन मायावती और उनके रणनीति कारों को मंथन करने के लिए विवश करते है ।