Monday, December 6, 2010

लोकतंत्र के लिए शर्मनाक ;बसपा के नेता ने चुनाव जीतने के लिए करवाया अपहरण

उत्तर प्रदेश में बसपा सरकार के शासन में अराजकता कितनी बढ गयी है इसका उदाहरण बसपा नेता पूर्व सांसद भालचंद यादव द्वारा अपने पुत्र को जिताने के लिए जिला पंचायत सदस्यों का अपहरण करना है।

रविवार को उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर जिला न्यायालय व कलेक्ट्रेट के सामने गुंडई की जो घटना हुई वह यहाँ के इतिहास में पहली बार है। दबंगों ने जिले के माथे एक कलंकित दास्तान लिख दी, जबकि डीएम व एसपी घटना से चंद कदमों की दूरी पर बैठे हुए थे। सैकड़ों पुलिस कर्मियों व भीड़ के समक्ष एक पूर्व जिला अध्यक्ष साधना चौधरी गिड़गिड़ाती व बिलबिलाती रहीं और असलहों की नोक पर दबंग उनके दो प्रस्तावकों को उठा ले गये।

भाजपा समर्थित प्रत्याशी साधना चौधरी के मुताबिक वह दोपहर 1।45 बजे अपने प्रस्तावकों समेत पैदल कलेक्ट्रेट की तरफ जा रही थी। इस दौरान दूसरे प्रत्याशी के समर्थकों ने असलहे का प्रदर्शन करते हुए उनके प्रस्तावक/जिला पंचायत सदस्य राजाराम लोधी व प्रेम नारायण को जबरिया एक लक्जरी वाहन में बैठा लिया और फरार हो गये। इसका विरोध करने पर दूसरे प्रत्याशी के समर्थकों ने साधना चौधरी के पुत्र सिद्धार्थ चौधरी व भाजपा कार्यकर्ताओं से मारपीट की।

नामांकन के बाद अपराह्न 3 बजे से हुई जांच के दौरान जिलाधिकारी द्वारा प्रस्तावक की गैरहाजिरी के सवाल पर साधना चौधरी ने बताया कि उनके प्रस्तावक को अगवा कर लिया गया है, ऐसे में उनकी उपस्थिति संभव नहीं है। उन्होंने बताया कि अपहरण के मामले में उन्होंने सदर थाने में नामजद तहरीर भी दिया है।

रविवार दोपहर ने बदनामी की जो दास्तान लिखी उससे जनपदवासी वर्षो उबरने वाले नहीं हैं। ठीक उस वक्त जब जिलाधिकारी प्रज्ञान राम मिश्र व पुलिस अधीक्षक महेश कुमार मिश्रा नामांकन कक्ष में बैठकर नामांकन कार्य में लगे हुए थे, बाहर मर्यादा की धच्जियां उड़ाई जा रही थीं। ऐसा भी नहीं था कि बाहर फोर्स की कोई कमी थी। दो पुलिस क्षेत्राधिकारी, छह थानाध्यक्ष समेत सैकड़ों पुलिस कर्मी कलेक्ट्रेट द्वार से लेकर इर्द-गिर्द मोर्चा संभाले हुए थे। यही नहीं कलेक्ट्रेट के दोनो तरफ बैरियर बनाये गये थे। बावजूद इसके दर्जनों चौपहिया वाहन भीतर कैसे पहुंचे। इसका आसान सा जवाब यही है कि बिना प्रशासनिक मिली भगत के नहीं। यही नहीं हाथों में असलहा लहराते हुए उन्होंने सारी मर्यादाएं तार-तार कर दीं। नियमत: जिले में धारा 144 लागू है। बावजूद इसके लोग एक दो नहीं बल्कि सैकड़ों की संख्या में नजर आये। इतना ही कलेक्ट्रेट परिसर के ठीक बाहर लगा पंडाल तथा वहां मौजूद दर्जनों कुर्सियां इस बात की गवाही देने के लिए काफी हैं कि सबकुछ प्रशासन की जानकारी में था। घटना के ऐन मौके पर सभी मीडिया कर्मियों को एक व्यक्ति द्वारा गुमराह किया जाना भी साजिश का एक अंग बताया जाता है। बाद में मीडिया कर्मी जब प्रेस कांफ्रेंस के लिए लोनिवि विभाग के डाक बंगले पर पहुंचे तो पता चला कि वहां प्रेस कांफ्रेंस की कोई तैयारी ही नहीं थी। आनन-फानन में जब वह लौटकर कलेक्ट्रेट परिसर के पास पहुंचे तो पता चला कि सामने असलहा लहराते हुए दबंगों की फौज, जिला पंचायत अध्यक्ष पद की भाजपा प्रत्याशी व पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष साधना चौधरी के दो प्रस्तावकों को अगवा करने में लगे हुए थे। इस दौरान कुछ मीडिया कर्मियों को दबंगो चेतावनी भी दी कि यदि उन्हें कवरेज की कोशिश की तो अच्छा नहीं होगा। जाहिर है कि सबकुछ प्री-प्लान था। इस दौरान अज्ञात दबंगों ने साधना चौधरी के पुत्र सिद्धार्थ चौधरी के ऊपर वाहन चढ़ाने की भी कोशिश की, यह और बात थी कि बगल होकर उसने अपने आप को बचा लिया।

सिद्धार्थनगर में पिछले कुछ महीनों से संतकबीर नगर के बसपा नेता पूर्व सांसद भालचंद यादव हाल ही में हुए पंचायत चुनाव में धन बल -बाहुबल से अपने पुत्र प्रमोद यादव को जिला पंचायत सदस्य बनाने में सफल रहे। इसके बाद रविवार को उनके गुंडों ने लोकतान्त्रिक मूल्यों को तार-तार कर दिया। मजे कि बात यह है कि यह सारी घटना जिले में तब हुयी जब प्रदेश सरकार के पंचायती राज्य मंत्री दद्दू प्रसाद डाक बगले पर मौजूद थे.

हालांकि जिलाधिकारी प्रज्ञान राम मिश्रा का कहना है कि पुलिस अधीक्षक से घटना की आख्या मांगी गयी है और जो भी दोषी मिलेगा, उसके विरुद्ध कठोर कार्रवाई की जायेगी।

"मशाल"

Tuesday, March 17, 2009

मोदी का नया वर्ज़न वरुण गाधी

"अगर किसी ग़लत तत्त्व के आदमी ने , किसी हिंदू पर हाथ उठाया या हिन्दुओं ...,ये समझे की ये कमजोर है ,उनके पीछे कोई नही है ...मै गीता की कसम खा कर कहता हूँ कि मै उस हाथ को काट डालूँगा "
ये शब्द किसी और के नही बल्कि स्व .संजय गाधी एवं मेनका के सुपुत्र और भाजपा के युवा नेता वरुण गाधी के है । यह देश के लिए दुर्भाग्य है कि ऐसे सांप्रदायिक तत्वों को हमें झेलना पड़ता है । इन्हे गाधी नेहरू परिवार का वारिस कहा जाए या ९० के दौर में राम मन्दिर के नाम पर सांप्रदायिक माहौल बनाने वाले अडवाणी कि परम्परा का वाहक । भाजपा को जब कोई मुद्दा नही सूझता है तो चुनाव के पहले धर्मं आधारित राजनीति शुरू कर देती है ।
आडवानी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती,कल्याण सिंह सहित वर्तमान में नरेन्द्र मोदी और विनय कटियार जैसे लोग सांप्रदायिक सदभाव बिगाड कर सत्ता का सुख भोगते रहते है । वरुण गाधी के इतिहास पर नज़र डाली जाए तो पता चलता है कि इन्होने लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स से कानून और अर्थशास्त्र कि पढाई कि इनकी रास्ट्रीय सुरक्षा और कविता पर पुस्तक भी आई है । ऐसे में यह ताज्जुब का विषय है कि इतना पढ़ा हुआ व्यक्ति भी सांप्रदायिक है ! इससे एक बात स्पस्ट होती है की देश के नेता यह जान चुके है की चुनाव में जीतने का सबसे अचूक मंत्र यही है ।
वरुण गाधी ने पीलीभीत में अभी तक तीन 'हिंदू सम्मलेन ' को संबोधित कर चुके है । २२ फरवरी को लालौरी खेरा ,६ मार्च को दालचंद और ८ मार्च को बार खेरा । जिसमे बारी -बारी से वरुण ने 'जय श्री राम ' और धर्म विशेष का सहारा लेकर अपनी चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिश की । भाजपा का मौन इस बात की ओर इशारा करता है कि उसकी तरफ़ से मूक सहमति है ।इतना ही नही गाधी परिवार का माहौल बिगाड़ने का पुराना इतिहास रहा है । लोकतंत्र का काला अद्याय इमरजेंसी में वरुण के पिता स्व.संजय गाधी ने किस तरह सत्ता का दुरुपयोग किया था यह किसी से छुपा नही है ,इन्द्रा गाधी की हत्या के बाद राहुल गाधी का कथन "जब बड़ा पेड़ गिरता है ,धरती हिलती है " के द्वारा सिखों पर हुए कत्लेआम को सही ठहराना कहा तक उचित था ! ९० के दौर में एक बार फिर बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाकर राजीव गाधी ने बाबरी विध्वंस का मार्ग प्रसस्त किया था । और अब वरुण का यह विचार उसी के आगे का रास्ता है !
अभी तक आडवानी,सोनिया कि प्रतिक्रिया न आना लोकतंत्र का मखौल उड़ा रहा है। जनता को यह बात पूरी तरह समझ लेनी चाहिए कि राजनीति के इन सौदागरों से बचना होगा और चुनाव में अपनी कड़ी प्रतिक्रिया से अमन चैन बिगाड़ने वालों के मुह पर जोरदार तमाचा जड़ना होगा ।
नरेन्द्र मोदी के नए रूप वरुण गाधी का जमकर विरोध करे तभी यहाँ कि आबोहवा में ताजगी आएगी । इकबाल की ये पंक्तिया आज भी उतनी ही प्रासंगिक है ...
सारे जहा से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।
हम बुलबुले है इसके ये गुल्सिता हमारा ।

मजहब नही सिखाता आपस में बैर रखना ,
हिन्दी है हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा।

Sunday, March 15, 2009

मशालें लेकर चलना ...



मशालें लेकर चलना,कि जब तक रात बाकी है

संभल कर हर कदम रखना,कि जबतक रात बाकी है

मिले मंसूर को शूली ,जहर सुकरात के हिस्से

रहेगा जुर्म सच कहना,कि जब तक रात बाकी है

पसीने कि तो तुम छोड़ो, लहू मजदूर का यारो

सस्ता पानी सा बहेगा, जब तक रात बाकी है

तेरे मस्तक पे होगा हर पल विद्रोह का निशां

नही ये जोश कम होगा,कि जब तक रात बाकी है

अंधेरों की अदालत में,हैं क्या फरियाद का फायदा

तू कर संग्राम ऐ साथी, की जब तक रात बाकी है ।

मशालें लेकर चलना ...

(यह आज़ादी बचाओ आन्दोलन का गीतायन है । बताते चले की यह पेप्सी -कोका कोला के ख़िलाफ़ राष्ट्र व्यापी आन्दोलन है । पिछले ४ वर्षो से मै भी इलाहाबाद में प्रो.बनवारी लाल शर्मा के नेतृत्व में इससे जुदा हुआ हूँ। )

Saturday, March 14, 2009

इलाहाबाद विश्वविद्यालय की कुछ छविया

सीनेट हाल ...

कला संकाय ...






विज्ञानं संकाय ...

विजयनगरम हाल और गणित विभाग

सर सुंदर लाल छात्रावास

सीनेट हाल का एक द्वार
इलाहबाद विश्वविद्यालय से मैंने परास्नातक किया। वहां सर गंगानाथ झा छात्रावास में रहते हुए ज़िन्दगी के कई पहलू देखे। उन्ही यादों को ताज़ा करते हुए ये फोटो प्रकाशित कर रहा हूँ।
नचिकेता शर्मा जो स्वतंत्र पत्रकार है , उनके कैमरे से इलाहाबाद विश्वविद्यालय की कुछ तस्वीरें । बताते चले की शर्मा जी दिल्ली में पत्रकारिता के अवसर हेतु संघर्ष कर रहे है ।




पत्रकार के कैमरे से ...







मेरे मित्र नचिकेता शर्मा द्वारा खीची गई फोटो। शर्मा जी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पत्रकारिता करने के बाद वाराणसी में अमर उजाला में ६ महीने काम किया। अभी अवसर की तलाश में दिल्ली है ।

तीसरा मोर्चा :मिथक और यथार्थ


भारत में चुनावी महापर्व अर्थात आम चुनाव आने से पहले गठजोड़ का खेल शुरू हो जाता है। विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियों को अपने पाले में लाने की जुगत में कांग्रेस और भाजपा व्यस्त हो जाते है। इसी बीच कभी-कभी तीसरे मोर्चे की बात भी सुनायी दे जाती है।1977 में भारत के राजनीतिक इतिहास में पहली बार कांग्रेस विरोध के दम पर सत्ता में आयी जनता पार्टी की सरकार एक ऐतिहासिक घटना थी। इस सरकार को अमली जामा पॅहुचाने वाले लोकनायक जयप्रकाश ने कहा था कि जनता पार्टी का मतलब भारत की आम जनता से है। कांगेस के विद्रोही नेता मोरार जी देसाई प्रधानमंत्री बने। लेकिन राजनीतिक महत्वकांक्षा की सिर फुटट्वल से जल्द ही यह सरकार पदच्युत हो गयी।इसके 12 साल बाद 1989 में कांग्रेस के ही असंतुस्ट नेता वी।पी।सिंह ने सत्ता परिर्वतन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। बोफोर्स मामले मे राजीव गांधी से दो-दो हाथ करने से भी नही चूके। राजा मांडा के नाम से विख्यात वियवनाथ प्रताप सिंह हालाकि बहुत कम समय के लिये प्रधानमंत्री रहे लेकिन मंडल कमीसन लागू कर इतिहास पुरूष बन गये। इसके बाद बलिया के सांसद युवा तुर्क,खाटी समाजवादी नेता चंद्रशेखर मात्र चार दर्जन सांसदो के बल पर लाल किले के प्राचीर से तिरंगा झंडा फहराने में सफल रहे। लेकिन तत्कालीन अवसरवाद के तहत प्रधानमंत्री बने चंद्रशेखर भी स्थिर सरकार देने में विफल रहें । गए घटना के मात्र सात साल बाद 1996 में एक बार फिर कंाग्रेस की बैसाखी पर वी.पी.सिंह के सुझाव पर कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहे एच.डी.देवगौड़ा तीसरे मोर्चे से प्रधानमंत्री बने।असंतुस्टों की मार झेलते हुये शीग्र ही उन्हे भी पद छोड़ना पड़ा। जिसके फलस्वरुप बेहद कम चर्चा में रहने वाले इंद्र कुमार गुजराल सौभाग्यवस प्रधानमंत्री बने।लेकिन उनका कंधा भी सहयोगियों के बोझ न ढ़ो सका और दो साल के अंदर ही चुनाव हो गए ।
ek बार फिर तीसरे मोर्चे की अटकले चर्चा में है।अभी एक साल पहले ही मुलायम सिंह के अगुआई में तीसरे मोर्चे का गठन हुआ था।जिसमें चंद्र बाबू नायडू,जयललिता,ओम प्रकाश चौटाला ,असम गण परिसद के गोस्वामी सहित झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबू लाल मरांडी थे।लखनऊ में आयोजित रैली में सभी ने एकजुट होकर नया विकल्प देने का संकल्प किया था। लेकिन जल्द ही यह गठबंधन छिन्न-भिन्न हो गया। कुछ को छोड़ कर लगभग यही दल एक बार फिर वाम दल के प्रमुख प्रकाश करात के नेतत्व में नया गुल खिलाने का प्रयास कर रहे है। लेकिन यहा समस्यायें भी कई तरह की है। सबसे विकट समस्या प्रधानमंत्री पद को लेकर है। देवगौड़ा की अपनी हसरतें है जबकि उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती तो अभी से ही प्रधानमंत्री पद के हसीन सपनें देख रही है।यदि तीसरे मोर्चे के सदस्यों पर नज़र डाले तो इनका अभूतपूर्व इतिहास सामने आता है। पहला नाम वाम दलों का है जिनकी कांग्रेस और भाजपा से दूर रहने की अपनी मजबूरी है।कांग्रेस नीत गठबंधन मे वाम दल बार-बार घुड़की देते रहे है । संप्रग सरकार में वाम दलो ने किस तरह गठबंधन धर्म निभाया यह किसी से छुपा नही है। बसपा का तो गठबंधन तोड़ने का स्वर्णिम इतिहास रहा है। भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री बनी मायावती ने किस तरह दो बार भाजपा को धोखा दिया इसकी याद आज भी लोगो के जे़हन में ताजा है।इतना ही नही समाजवादी पार्टी और कांग्रेस से भी इसका गठबंधन टूट चुका है। मोदी का प्रचार कर मायावती स्वंय को किस तरह धर्मनिरपेक्ष बताती है,यह समझ से परे है! रही बात तेलगु देशम पार्टी की ,तो पिछले चुनाव मे पाँच सीट और विधानसभा में बेहद निराशाजनक प्रदर्शन के बाद वह किस स्तर पर है यह सबको पता है। आंध्र प्रदेश की राजनीति में चिरंजीवी के आने से सत्ता समीकरण बिगड़ गये है।कभी तीसरे मोर्चे के संयोजक रहे चंद्रबाबू नायडू ,ने एनडीए के शासन में खूब मलाई काटी और अब अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिये एक बार फिर तीसरे मोर्चे की शरण में पहुच गये है ।

इतना तो तय है कि तीसरे मोर्चे के नाम पर गठित सभी दल चुनाव के बाद जमकर सौदेबाजी करने वाले है। क्योकि जब तक तीसरे मोर्चे की एक व्यापक और दूरदर्शी सोच के साथ लोगो की बेहतरी के लिये कुछ अलग योजना नही होगी तब तक यह भटकाव की ओर ही अग्रसर रहेगा। सबसे पहले इस मोर्चे को अपनी विस्वसनीयता कायम करनी होगी जिससे विषम परिस्थितियों मे भी यह बना रहे। इसे जन आंदोलनो की नब्ज थाम कर अपना प्रसार करना होगा, तब कहीं रास्ट्रीय स्तर पर यह विकल्प के रुप में उभर सकेगा।

Friday, March 13, 2009

नोट बाटने के मायने

आज दोपहर न्यूज़ चैनल देख रहा था । अचानक आई बी एन सेवेन पर एक ब्रेकिंग न्यूज़ आयी। मुलायम सिंह यादव के कार्यकर्तायों ने इटावा में होली मिलन कार्यक्रम के दौरान १००-१०० के नोट बाटें। इस के बाद शुरू हो गया मीडिया के पागलपन का दौर । भला स्टार न्यूज़ कैसे पीछे रहता उसने भी मुबई की घटना को दिखाना शुरू कर दिया । मुबई में कांग्रेस के सांसद सिने अभिनेता गोविंदा अपने घर आए हिज़डों और मलिन बस्तियों के समूह को रुपये दे रहें । जाहिर है की मीडिया का यह उत्तरदायित्व है की व्यवस्था की खामियों को उजागर करें , लेकिन इस बात से इनकार नही किया जा सकता की मीडिया को हर पहलू दिखाना चाहिए । मीडिया जज नही है , जो हर मामले में अपना निर्णय दे दे । जो लोग होली की परम्परा से वाकिफ होंगे वे इस बात को जानते होंगे की , होली पर त्योहारी देने का चलन होता है । गावों और छोटे शहरों में आज भी लोग एक दूसरे पर आश्रित रहते है । होली के त्यौहार पर कपड़ा धोने वाले ,बाल काटने वाले , बर्तन माजने वालो को मिठाईया और कुछ रूपये देने की पुरानी परम्परा है । यह सभी जानते है कि आज भी देश कि अधिकांश जनता के लिए होली के कोई मायने नही है । गरीबी से जूझ रही ७० प्रतिशत आबादी कि ज़िन्दगी का हर पहलू बदरंग है । सामाजिक असमानता चरम पर है । लोगो में नफरत ,हिंसा बढ रही है । ऐसे में यदि होली के बहाने कुछ लोग मिठाईया खाने या भोजन के लिए कुछ रूपये पा जा रहे है , तो यह किसी भी प्रकार अनुचित नही है । मीडिया को इस घटना के मद्देनज़र मुफलिसी में जी रहे लोगों के जीवनयापन को दिखाना चाहिए । पत्रकारिता का काम सभी को मंच देना होना चाहिए । याद रखिये यदि एक बार वंचित वर्ग के सब्र का बाध टूटा तो लोकतंत्र कि धज्जिया उड़ जाएँगी । फिर ना रहेगा सिविल सोसाइटी और न रहेगी पत्रकारिता। बताने से पहलेचेतने में ही सब कि भलाई है । हर पहलूँ के दोनों पक्ष दिखाकर उसपर निर्णय करने का अधिकार जनता के पास रहने दीजिये । क्योकि लोकतंत्र में जनता ही सबकुछ है ।